श्री सावित्री व्रत कथा (मैथिली में)
भद्र देशक महाराज बडे धर्मात्मा प्रजा पालक अश्वपति छलाह, तनिका कोनो संतान नहीं छलेंह। से महाराज महारानी मालवीक अनुमति पाबी वन जाय परासर मुनिक उपदेश सौं गायात्रिक अनुष्ठान कैलेंह, गायत्री देवी सौं वर लाभ कई राजा राजधानी आएलाह, पश्चात हुनका एक कन्या जन्म लेलथींह, सावित्रिक अनुष्ठान सौं कन्याक जन्म भेलेंह तें ताहि कन्याक सावित्री नाम राखल गलेंह। परमा सुंदरी सर्वगुण सम्पन्न से सावित्री राजकन्या बडे सुशीला छलीह, हुनका माँ महारानी मालवी बाल्यावस्था सौं लिखाय पाढाय उत्तम उत्तम उपदेश ओ गृह परिचर्या आदि स्त्री धर्म सौं सुशिक्षित कय लोकक हेतु एक आदर्श बनाय देलथींह। बाल्यावस्था में बलिकाक मन में जे अभ्यास नीक अघ्लाह कराय देल जाय छेंह, से स्वाभाव हुनका जन्म भरिक हेतु उन्नति, अवनति, सुनाम, दुर्नाम, यश, अवयश देनिहार मे जाय छेंह। सावित्री जखन बालिका छलीह ताहि समय सौं माँ हुनका पति भक्ती, सास ससुरक सेवा, माँ बापक आज्ञाकारिका ओ गृह परिचार्याक कुशलता तेहन अभ्यास कराय देलथींह जे आगो जाय से सब गुण सावित्री कें सर्वदाक हेतु सुखकारक भेई गेलेंह। सावित्री अपना माँ बाप के एक संतान छलींह तें कारन ओ माँ बाप के तेहिन दुलराधीन छलींह जे भोजन शयन भूषण वसन आदि दुर्लभ राजसी सुख हुनका सतत प्राप्त रहें छलेंह. परम सुख भोग मे सावित्री अपन बाल्यावस्था कें व्यतीत कैलेंह। जखन विवाह योग्य भेलींह तखन हुनका माँ बाप सुयोग्य वर निमित महाराज कुमार सबहिक बहुतो अन्वेषण कयलेंह किन्तु सवित्रीक अनुरूप सौंदर्य ओ सर्वगुण सम्पन्न वर कतुहू नाही भेटलथींह। पश्चात हुनका माँ बाप सावित्री याहि के अपन योग्य वर ताकि लेवाक आज्ञा देलथींह। जखन बहुत दूर चली गेलीह ताहि ठाम एक तापोवनक सन्निधी धुमुतसेन महाराज जनिक राज हरण भै गेल छलेंह, तनिका कुटी छलेंह, ताहि कुटिक समीप ही हुनक पुत्र सत्यवान सौं भेंट भै गलेंह, सावित्री हुनक सौन्दर्यता पर मोहित भय हुन्काही पति स्वीकार कयलेंह। सत्यवान सेहो सवित्रिक रुप ओ गुण पर आशिक़ भय गेलाह, परस्पर विवाहक व्यवस्था दुनू के ताहि ठाम भेई गलेंह। सावित्री अपना पिताक राजधानी में धुरी अयलीह। पिता सौं सत्यवानक परिचय ओ विवाहक व्यवस्था कही सुनौलेंह , ताहि काल नारद मुनी सेहो राजाक सन्निधि में बैसल छलाह, सवित्रिक कथा सुन नारद देवर्षि अश्वपति के भेल्थींह, हे महाराज! होनिहारी बात कर्म लेख भेल चाहे, ताहि में संदेह नहीं, हमरा ई बात कहबाक जे सत्यवानक आयुष आए सौं पुरे एक वर्ष धरी छेंह, तादुत्तर लागले ओ ई देह त्याग कै परलोक प्राप्त करताह। नारद मुनिक कथा सुनि महाराज अत्यंत व्याकुल भए कन्या के बुझाबह लगलाह। हे पुत्री! अपन आग्रह छोरि दीयऊ, देवर्षी नारदक कथा कोखनो मिथ्या नाही भए सकै अछि, तें सत्यवान के छोरि दोसर वर सौं विवाह करू, नाही त एक वर्षक उत्तर आहांक वेधव्य दशा में प्राप्त भे भरि जन्मक हेतु घोर कष्टक योग्य कियेक करब? हृदय शुन्य अन्धलोक जों खाड़ी मे खसय तों ओकर कि साध्य परंतु आहंक एहिन बुधियारी भए जानि बुझि के महाघोर दुःखक खाड़ी में कियैक खसैय छी, स्त्रीक हेतु संसार में स्वामी सौं भिन्न और कोनो सुख नाही छेअक। सावित्री पिताक कथा सुनी थोरेक काल लज्जा सौं माथा झुकाय लेलेंह, फेरी धर्मक विचार कए पिता सौं बजलींह, हे पिता अपनेक कथा सत्य, हमहूँ जानै छी स्त्री कें स्वामी व्यतिरेक संसार शुन्य थिकैह, परंतु की करू, हम तौं हुनकहीं स्वामी बनाय चुकलहुँ, अपन मन हुन्काही में अर्पण कै देल, आव हुनका छोरि दोसर पुरुष कै स्वामी कोना करब, हमरा अधर्म, अपने कै कलंक शास्त्र कहै छथि, स्त्री कै स्वामी सौं भिन्न अपर पुरूषक दिश ध्यान नही देवाक थिकेंह। हे पिता! हम अपना ह्रदय रुपी मंदिर में सत्यवानक मुर्तिक स्थापना काय चुकलहुँ। अपन मन हुनका अर्पण कै देल आब हमर तन मन हुनेक भए गलेंह। तखन आब ई शरीर हम अपर पुरुष के कोना देब। हम नीके अन्वेषण काय चुकलहुँ। हमर स्वामी होयेबाक योग्य संसार में एक सत्यवाने छथि। दोसर नाहीं। दीर्घायु हेयु या अल्पायु आब हमर स्वामी सत्यवान भेलाह। अपने किछु चिन्ता जनु कयेल जाऊ। हमर भाग्य में लिखल अछ सैह होयत। अपनेक कि साध्य? लोक बजेय अछि "माँ बाप जन्म देय छथिन लेकिन कर्म अपने"। कन्याक कथा सुनी राजा अत्यंत चिंतित भय कानह लागला किंकर्तव्य स एको स्फूर्ति नहीं होईयेंह ताहि ठाम सवित्रिक धैर्य धर्म ओ साहस देख नारद बजलाह, ओ महाराज! आब एही कन्याक ओही वर सौं विवाह होवे दियउ, ईश्वरक ईच्छा किछु नीक बुझि पडै अछि। जखन देवर्षी सेहो सम्मत देलथींह तखन महाराज अश्वपति अपन कन्या सावित्री के तपोवन लए जाय सत्यवान सौं विवाह कराय देलथींह। सावित्री अपन पिताक राजधानीक राजस्थ सुख सब के त्याग स्वामीक ओ वृद्ध ससुर और सासुक सेवाक हेतु घोर वन में रहय लगलीह, राज भवनक भोग्य मिष्ठान्न पदार्थक बदला में ताहू से अधिक सुखदायक कन्द मूल फल के अमृत बुझी संतोष पूर्वक स्वामीक सुश्रुषा में रही निर्वाह कराय लगलीह। जे सावित्री काल्हि धरी उत्तमोत्तम सुखदायक पलंग पर sutai chhaleeh uttamotam padarth भोजन करय छलीह, नीकहू सौं नीक पतामबेर ओ भूषण आदि पहिरई छलीह अनगिनत दास दासी पर आज्ञा चलबै छलीह सैह सावित्री आए बलकल पहिरने, भूषण शुन्य शरीर सौं खाट बिछाय कै सुतय लागलीह। कन्द मूल खाई छलीह सेहो भरपेट नाहीं भेटै छ्लेंह। राज कन्या भए ई दुःख सब सहैत स्वामीक दासी बन्ललि प्रातः काल सं राती धरी गृह परिचर्या करैत स्वामी, ससुर, सासक सेवा में ठाढि रहैत छली। परंतु अहनो कलेश हुनका अपन योग्य स्वामी पोलाह संता तेहन सुखदायी भेलेंह जे कालिह धरिक समस्त संगक सुख सब बिसरी गेलींह। स्वामीक संगक सुख सब सुख सं विशेष आनंद कारक भए गलेंह। सावित्री अपना गुण सौं ओ उत्तम व्यव्हार सब सौं स्वामी ओ सास ससुर के तेहन अनुमोदन केने रहेय छलीह जे सर्वदा हुनका सभिक जिह्वा पर सावित्रिक प्रशंसे बनल रहेय छ्लेंह। एवम प्रकार हुनक प्रशंसा ओ मर्यादा सब लोक में विख्यात भए गलेंह। "कालस्य कुटिला गति:"। समय जायेत देरी नाही। यही प्रकारक सुख आनंद में पूर्ण एक वर्ष बीत गेल। सत्यवानक मृतुयक दिन पहुंच गलेंह। नारद मुनी जे दिन कहले रहथीं से समाप्त भेल। गत रात्री में सावित्री कतेक दुःख स्वपन सब देख्लेंह। प्रातः काल होयत अनेकानेक अपसगुन सब घूमय लगलेंह। स्वामीक मरनक दिन स्मरण कै ह्रदय कंप होएय लग्लेंह, ताहि चिन्ता स व्याकुल भए अन्न पानी त्यागि देलेंह। बडे विहुवल ओ आशाक्य भए गेलीह ओही दिन प्रातः काल सं संधापर्यत्न अपन सौभाग्यक प्राप्तक हेतु ईश्वरक व्रत करेय लग्लीह|ज्यों ज्यों क्षण मुर्हूत बीतल जाए तौं तौं सवित्रिक ह्रदय शोक सं विदीर्ण भेल जायेंह|मुख परिशुश्क भए गेलींह|ह्रदय में चेन नही पड़त| तथापि मनक भेद ककरों सं नाही कह लेंह|तदन्तर सत्यवान माता-पिताक अज्ञा लय नित्य अज्ञानुसार फल मूल समृद्धि लेवाक हेतु वन जय्वाह पर उदृत भेल्लाह |से देखी सावित्री के रहल नहीं गेलेंह,ससुर ओ सास से आज्ञा
लेय दौरी कै स्वामीक सन्निधि आवी हाथ जोरी कै बज्लीह ए प्राणनाथ आई हमाराहुं अपनेक संग वनक शोभाक देख्वाक ईच्छा अछि |अनुग्रह कै हमराहून अपना संग वन लै चलल जाऊ|सास ससुरक आज्ञा हम लै अयेलाहूँ केवल अपनेक अज्ञा क प्रतीक्षा अछि|सावित्रिक प्राथना सुनी सत्यवान हुनका वनक भयंकर मार्ग ओ जीवजाती जंतु सभक भय तथा और आन् आन् अनेक प्रकारक वनक दुःख सुनाय कै वन जेवा सं निषेध कयेल्थिंह|परंतु सावित्री नही मानाल्थिह|हाथ जोरी फेर बजलीह हे !प्रानेश,हे नाथ,हे हमरा शारीरक इश्वर आही दासी के आई अवश्य साथ लै चलल जाऊ|जखन अपने हमर रक्षक ओ स्वामी संग ही में रहब तखन हमरा कथुक भय कियक होयत|अपनेक सं कोमल ओ सुकुमार शरीर जखन वन में फिरताही छी तखन हमर कोन लेखा|हम तौं अपनेक दासी छी|स्त्री विशेष कै स्वामीक छाया कहल जायेत अछि|ईह बात प्रत्यक्षे अछि|जताए जताये देह जाये छाया संगे चलाए अछि|हे!प्रानेश्वर अपनेक संग हमरा कोनो प्रकारक कष्ट नही होयत|स्त्री पुरुषक आर्धगिनी थिकथी|दुनुक सुख दुःख एक ही में मिलल छेंह|हे! बल्लभ आई हम अपने क वन अकेले कदापि नही जाये देव |जते जते अपने के जेवाक अछि तहिठाम हमहूँ संग ही जयेब ,संग ही रहब|एही प्रकार जखन सावित्री बहुत कहाल्थिंह तखन अंत में सत्यवान के प्रियाक कथा मानेक परलेंह |उपवास सं खिन्न शरीर भेल सावित्री स्वामीक संग वन कै विदा भेलीह|जयेत जयेत जखन घोर वनक के बीच सत्यवान पहुंचाला तखन सावित्री के परेशान देख हुनक मुख ओ छातिक पसीना अपने हाथ सं पोंछ तहिठाम प्रिया के एक वट वृच्छ तर छाया में बैसाये देलींह वो अपने कुठार सौं जारावन कटाय लगलाह|जरावन कतेत कटते संध्या भए गेलींह|कि ताहि काल माथ में तेहन asadhya व्यथा uthlanhi जे ताहि सौं व्याकुल भए सावित्री के शोर करए लगलाह|ए प्रिय दौरू दौरू हमरा धरु सम्हारू |ए व्यथा सौं हमर प्रान बाहर भेल चल जाये अछि|अतेक कहैत विह्वल भए खसी परलाह|सावित्री स्वामीक एहन दशा देख अत्यंत व्याकुल भेल अर्दनाद सौं रोदन करैत दौरलीन्ह|स्वामी के कोरा में उठाएँ ताहि वट वृच्छ क छाया में जाहिथाम स्वामी हुनका बैठाय गेल छाल्थीन|लाए आएलीह अपन साड़ी के फारी भूमि में बिछाय ताहि पर सुताए देल्थीन,हुनक माथ अपना कोरा में रखी रोदन करैत विलाप करय लग्लीह|हे!प्रानेश!,हे प्राणाधार !!अपने कतय चल जाए छी|आब हमर कोन दशा होयत?हम अपनेक बिनु निराधार भए एही शोक समुद्र में कोना जीअब,हमरा स्वामिहिक सेवाक व्रत अछि,एही पति व्रताक व्रत भंग कियेक करए छी,हमाराहू अपना संग लेने चलू
shir व्यतिरेक देहक शोभा कोना होयेतेंह हे नाथ!अपनेक बिनु हम अनाथ भए जाकर ही लग ठारी होएब,सेह हमरा अभागिल कही दुरा दुरा लेटी ओ घृणा करत|तें हमर प्राथना पर ध्यान दे एही दासी के संग ही लै चलल जाऊ,जे परलोक हु में पतिक सेवाक व्रत निभाही ओ सुख पूर्वक रही|एवम प्रकार स्वामीक मुख तकैत छाती पर हाथ देने झरना क समान लोर बह्वैत अपन आर्तनाद सौं ओही वन के गुंजित कै रहली छलीह|ताहि काल धर्मराज गदा ओ फाँस हाथ में लेने ओही ठाम पहुंच ही गेलाह|सत्यवान सन्निधि ठार भए हुनक प्रान हरनक विषय में किछु तार तम्य करैत छलाह,कि ताहि समय किछु तेजक प्रकाश देखी सावित्री आँखी उठोलींह,महा भयंकर श्यामवर्ण एक महापुरुष के सत्यवान प्रान हरण करवा में उध्हत भेल देखैत भेलीह,प्रथम हुनका देखताही भय सौं शारीर कम्पन भए गेलएंह ,प्रान देवा पर तौं छालिहे लागले सहस कै निह्शंक भए ठारी भय गेलीह,ताहि भयानक मूर्ति क पैर पर खसी परलीह,सावित्री के पृथक होई ताहि लागले धर्मराज सत्यवान क प्रान हरण कए फाँस सौं बंधी दक्षिण दिशा कें विदा भेलाह|सावित्री स्वामी क दुर्दशा देखी कनेत धर्मराज सौं बजलीह,हे महापुरुष!अपने कें थिकहूँ !हमरा स्वामी क गला में फाँस किएक लागौने छी!!धर्मराज बजलाह,हे पुत्री हम यम् क राजा थिकहूँ !आय आहंक स्वमीक आयु पूर्ती भए गेल तें हम हिनक प्रान हरण करय अपनाही आयेल छी| आनक प्रान लेवाक हेतु हमर दूत सभ संसार में फिरे छथि,ओ यमदूत सब जिव मात्र के बर कष्ट देछथींह,परंतु आहंक पति व्रत धार्मक प्रभाव सं एहिठाम हमरा अपने आवय परल जाहीं सं आहांक स्वामी के हम सुख पूर्वक स्वर्ग लै जएवेंह|आहान कोनो baatak चिन्ता जनु करी |आहान अपना आश्रम में जाऊ |आब एको छान एतय आर्य क जाहिं सके छी|सावित्री बजलीह हे धर्मराज !एही दासी पर दया कायल जाऊ एही अबला के शोक समुद्र में जनु डूबाऊ हमरा स्वामी के प्रान छोरी देल जाऊ,हमर एही प्राथना के स्वीकार कायल जाऊ|यमराज बजलाह ,हे सावित्री!आहाँ अज्ञानी जन्कां कियेक बजे छी,ई कोना होयत,जाकर आयुष पूर्ती भए गेलैक से कोना रही सकत,एही में हमर कि साध्य अछि,विधाता के लिखल कर्म रेखा के,के मेटाए सकत|सावित्री बजलीह,हे धर्माध्यक्ष!ई कथा कियेक कहे छी अपने के सब सामर्थ्य अछि,बंधवो करी छोडियो दी,हे पिता!हम अपनेक पुत्री थिकन्हुं,हमरा स्वामी के प्रान लै पुत्री के वैधव्य दशा क दुःख भोग करैत कोना देखब?यमराज बजलाह हे पुत्री!आहांक कहब सत्य परंतु हम कि करूं एही विषय में आब हमर कोनो साध्य नही अछि,आहाँ क भाग्य में जे लिखल छल से भेल आब शोक त्यागू धैर्य दारू बहुत दूर आय्लाहू फिरि जाऊ|सावित्री बजलीह,हे धर्माधीस!हम कि लै के धैर्य धरु,स्त्री के स्वामी छोरी संसार में और कोनो सुखाक स्थान नही छैक जाही सौं धैर्य धारय,हमरा तौं सब प्रकार संसार अंधकार अछि, स्वमीक यही दशा श्वसुर राज्य रहित आँखि सौं अंध, पिता अपुत्रक, अपनों हमर सैह दशा, महाराज विचारल जाऊ हम की लई क धैर्य करब, एही सौं हमरो प्राण स्वामी क संग ही लई चलल जाऊ से नीक, हमारा पतीक सेवाक व्रत अछि से निवाहल जाऊ। यमराज बजलाह, ए सावित्री अहाँ एहनी बुधियारी भई के बताही जकां कियेक बजै छीयै। परमेश्वरक सृष्टीक परिपाटी तौं एहने छैंह जकर जेहन क्रिया तकरा तेहन फल, एखन अहाँक आयुष बहुत बाकी अछि हिनक पूर्ती भै गेलैंह, तेहना काल हिनका छोड़ी देव वा अहाँ के लई जायब ई बात कोना होयत। सृष्टीक क्रियाक विरुद्ध काज करबाक ककरो साध्य नहीं छैंह, हम के थिकहूँ, ए सावित्री आब अहाँ ईश्वरक भजन करू ग, अहाँ के सुख प्राप्तक आब एक ता सैह उपाय अछि और किछु नही। सावित्री बजलीह, हे धर्मराज एही अबोधिनी स्त्री के अपने कोन ज्ञान सिखबाई छी, हम तौं अबला सोझ ह्रदय, छ पांच किछु नही जानी, हे धर्मराज अपने जे हमरा ईश्वर भजन करै कहै छी से कथा अपनेक हम मानल, परंतु शास्त्र में सुनल अछि जे स्त्री के स्वामी सेह इश्वर थिकथीन्ह, जखन अपने हमर इश्वर स्वरूप स्वामी के लई जायब तखन हम दोसर कोन ईश्वरक भजन करब तैं हमर स्वमीक प्राण छोड़ी देल जाए। एवं प्रकार सावित्री कोमल पतिभक्ति सम्मिलित अनेकानेक मधुर कथा सब सुनी धर्मराज अतिशय प्रसन्न भै ठाढ़ भै गेलाह। पति प्रेम में एकाग्र देखि दयापूर्वक सावित्री सौं बजलाह, हे सावित्री अहाँ अतिशय बुद्धिमती छी, अहाँक उत्तम उत्तम अमृत भै कथा सब सुनि हम अतिशय प्रसन्न भेलहुं, अहाँ के जे इच्छा हो से एक गोट वरदान हमारा सौं मांगी लिअ। धर्मराजक कथा सुनि सावित्री मन ही मन विचारई लगलीह, हमारा तौं कई एक बातक प्रयोजन अछि। एम्हर प्राणनाथ निर्जीव अछि, ओम्हर ससुर अंध ओ राजरहित छथि, हमारा संतान नहीं, पिता सेहो अपुत्रक छथि। भेल चाहय सब वस्तु परंतु वर एक गोट भेटत तकर उपाय की करी, थोडेक काल चुप छलीह फेरी विचारी कै बजैत भेलीह। हे धर्माधीश, हे करुणानिधान जौं अपने हमारा पर प्रसन्न भेलाहुं तौं अनुग्रह पूर्वक एक गोट वर देल जाए। "हमर ससुर राज सिंहासन पर बैसी अपना पौत्र सब के हमारा भाई सभक संग खेलाईत देखथी"। यमराज सवित्रीक बुद्धी ओ स्वामीभक्ती ओ पितृभक्ति देख अतिशय प्रसन्न भै बजलाह, हे सावित्री अहाँ धन्य थिकहूँ, अहाँक बुद्धीक ओ धर्मक बलिहारी रहय, हम अहाँक कथा सौ अती आनंद भेलहूँ। अहाँक मनोकामना सब टा शीघ्रहिं पूर्ती भै जाओ, सैह हमर आर्शीवाद, आब कथुक चिन्ता जनु करी सब आनंद ए आनंद। सावित्री अभिलाषा पूर्तीक वर पाबि कृतार्थ में यमराजक स्तुति प्रणाम करय लगलीह। धर्मराज सत्यवानक प्रान फांसी स खोलि ताहि ठाम अन्तर्हित भै गेलाह। सावित्री विदा भै ओही वट वृक्ष तर घूरि क चलि आयलीह। हिनका आवितहीं सत्यवान जीवी कै उठि बैसलाह, ओ सावित्री स बजैत हे प्रिय! आई हमरा सुतल सुतल बड़ नीनी पडी गेल। अहाँ उठाई कियैक नहीं देल? बुझि पडैत अछि जे अहाँ हमरा निन्द्रा भंगक दोषे नहीं जगाओल। ए प्रिय चलू चलू राति बड़ी भेल। कुटि में माता पिता चिन्ता करैत होयेताह|साँझ पडेत कहियो घर सं आवेत् नै देते छलाह से ओ हमरा कि कह्तीह| सावित्री के संग लै सत्यवान अपना कुटिया के विदा भेलाह | बाट ही में माता पिता कनैत तकैत चलि आवेत छाल्थींह तनिका सौं भेंट भ गेलेंह|सावित्री के देखातही धुमुत्सेन महाराज के सुझय लग्लेंह| आनंद सौं सब कुटि में अवय गेलाह। किछु काल लागले धुमुत्सेन महाराजक शत्रु राजा कोनो संग्राम में मारल गेल। हुनक राजा प्रजा ओ वृद्ध मंत्री सब वन में आबि महाराज धुमुत्सेन ओ सत्यवान सावित्री सब के राजधानी में ले जाय राजसिंहासन पर बैसाय राज दै देलकैंह। आनंद स राज करय लगलाह। किछु दिनक बाद सत्यवान सावित्री स एक बडे शूरवीर पराक्रमी धर्मात्मा ओ यशस्वी पुत्र जन्म लेलथीन। सावित्री अपना पति व्रत धर्मक प्रसाद दुहू कुल के समुज्ज्वल करैत एक लक्ष वर्ष धरि संसार में स्वमीक संग पूर्ण सुख भोग करैत गेलीह। अंत काल स्वामी सहित स्वर्ग चलि गेलीह। सुखपूर्वक स्वमीक संग स्वर्गवास करैत छथि। जे स्त्री सब पतिव्रत धर्मक पालन करैत छथि तनिका स यमराज सेहो त्रस्त रहै छथीन्ह। ओ स्त्री स्वमीक संग दुहू लोक में अक्षय सुख भोग करै छथि। सवित्रीक स्वामीक प्रान धर्मराज अमावस्या में छोड़ि देलाथींह तैं ताहि दिन स ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या में वट सावित्री व्रत पूजाक प्रचार भेल। जे स्त्री उक्त तिथी में वट वृक्षक पूजन करै छथि, धर्मराजक प्रसाद तनिक सौभाग्य ओ स्वामीक आयुष बढै छन्हि। जे केयो ई कथा मन दय सुनतीह तनिका संतति सम्पति सौभाग्यक वृद्धि होईतैंह, अंत काल धर्मराजक प्रसादे निर्भय रहतीह।
इति श्री सावित्री व्रत कथा समाप्त॥
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